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श्रीरामचरितमानस के माध्यम से तुलसीदास ने श्रीराम को बना दिया जन-जन का राम


गुडग़ांवI भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त व महान ग्रंथ रामचरित मानस के रचियता गोस्वामी तुलसीदास का संपूर्ण जीवन राममय रहा।
उन्होंने अपने महाकाव्य के माध्यम से समूची मानव जाति को श्रीराम के आदर्शों से जोड़ते हुए श्रीराम को जन-जन के राम बना दिया। तुलसीदास की जयंती श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को बड़े धूमधाम के साथ मनाई गई। ज्योतिषाचार्य पंडित डा. मनोज शर्मा ने उनकी जयंती पर उन्हें याद करते हुए कहा कि मन वैराग्य उत्पन्न होने के बाद से ही तुलसीदास  भगवान श्रीराम की भक्ति में रम गए थे। स्वामी नर हरिदास ने तुलसीदास को दीक्षा देते हुए जीवन की राह दिखाई थी। तुलसीदास ने अपने जीवनकाल में कवितावली, दोहावली, हनुमान बाहुक, पार्वती मंगल, रामलला नेहछू, विनय पत्रिका, कवित्त रामायण, वरवैय रामायाण, वैराग्य संदीपनी सहित कुल 12 पुस्तकों की
रचना की, लेकिन उन्हें सर्वाधिक ख्याति रामचरितमानस के माध्यम से ही मिली।

डा. मनोज ने बताया कि महर्षि वाल्मीकि द्वारा संस्कृत में रचित रामायण को आधार मानकर गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना अवधी भाषा में की थी। अपने महाकाव्य के माध्यम से उन्होंने भगवान श्रीराम की मर्यादा, करुणा, दया, शौर्य, साहस और त्याग जैसे सदगुणों की व्याख्या करते हुए उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम का स्वरुप दिया।  तुलसीदास जी का कहना था  कि तुलसी के राम सबमें रमते हैं और वे नैतिकता, मानवता, कर्म और त्याग द्वारा लोक मंगल की स्थापना करने का प्रयास करते हैं। रामभक्ति के पर्याय बने गोस्वामी तुलसीदास ने सत्य और परोपकार को सबसे बड़ा धर्म तथा त्याग को जीवन का मंत्र मानते हुए अपनी रचनाओं के माध्यम से असत्य, पाखंड, ढोंग और अंधविश्वास में डूबे समाज को जगाने का हरसंभव प्रयास किया।

उनका मानना था कि मनुष्य को बहुत सोच-समझकर अपने मित्र बनाने चाहिए। क्योंकि जीवन में हमारा जैसा संग-साथ होगा, हमारा आचरण और व्यक्तित्व भी वैसा ही हो जाएगा। सत्संग का प्रभाव व्यापक है और इसकी महिमा किसी से छिपी नहीं है। तुलसीदास जी का यह भी मानना था कि संतों का संग किए बिना ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती और सत्संग तभी मिलता है, जब प्रभू श्रीराम की कृपा होती है। उनका यह भी मानना था कि संत और असंत दोनों एक ही संसार में एक साथ जन्म लेते हैं, लेकिन दोनों के गुण जल में ही उत्पन्न होने वाले कमल और जौंक की भांति भिन्न होते हैं। संत इस संसार से उबारने वाले होते हैं, जबकि असंत कुमार्ग पर धकेलने वाले होते हैं। तुलसीदास का महाकाव्य श्रीरामचरितमानस आज भी प्रासंगिक है।

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