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स्वतंत्रता आंदोलन में आदिवासी समाज का भी रहा है बड़ा योगदान सिदो-कान्हू मुर्मू के शहीदी दिवस पर दोनों भाईयों को आदिवासी समाज ने किया याद

गुडग़ांवI देश को आजाद कराने में विभिन्न समुदायों के साथ-साथ आदिवासी समुदायों का भी विशेष योगदान रहा है। उन्होंने अपने
पंरपरागत अस्त्र-शस्त्रों का इस्तेमाल कर अंग्रेजों छठी का दूध याद दिला दिया था। हालांकि आदिवासी समुदाय को इसकी बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ी थी। वर्तमान झारखंड के साहिबगंज जिले के बरहेट प्रखंड में संथाल आदिवासी परिवार में जन्मे 2 भाईयों सिदो मुर्मू व कान्हू मुर्मू के नाम से विख्यात इन दोनों भाईयों ने अंग्रेजों के आधुनिक हथियारों को अपने तीर धनुष के आगे झुकने पर मजबूर कर दिया था।  सिदो व कान्हू मुर्मू के बलिदान दिवस पर आदिवासी समाज ने उनकी वीरता को याद करते हुए कहा कि अंग्रेजों, साहूकारों व जमीदारों के अत्याचार के खिलाफ संथाल विद्रोह जिसे हूल आंदोलन के नाम से जाना जाता है, वह शुरु कर दिया था।

उन्होंने आदिवासी समाज को एकत्रित कर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ तीर-धनुष से लैस होकर अंग्रेजों पर हमला बोल दिया था। जबकि अंग्रेजी सेना आधुनिक हथियार व गोला-बारुद से परिपूर्ण थी वक्ताओं का कहना है कि इस आंदेालन में महेश लाल व प्रताप नारायण नामक दरोगा की इन वीरों ने हत्या भी कर दी थी। अंग्रेजी शासक उनकी बहादुरी से बड़े भयभीत हो गए थे। इस आंदोलन में संथालों की हार हुई और सिदो-कान्हू को फांसी दे दी गई थी। सिदो को अगस्त 1855 में पंचकठिया नामक जगह पर बरगद के पेड़ पर फांसी दी गई थी। कान्हू को भी 30 जून 1855 को अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया था।

आज भी ये घटनाएं संथालों के दिलों में जिंदा हैं और वे इन वीरों को याद भी करते हैं। इस आंदोलन ने अंग्रेजी हुकूमत को जड़ से हिलाकर रख दिया था। कार्ल माक्र्स ने इस विद्रोह को भारत का प्रथम जनक्रांति बताया था। इन दोनों वीरों के सम्मान में सरकार द्वारा विकास मेला लगाकर दोनों भाईयों को याद किया जाता है। आदिवासी समाज का कहना है कि समाज को इन दोनों भाईयों के
बलिदान से सीख लेनी चाहिए।

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