गुडग़ांवI देश की आजादी में आदिवासी समाज का भी कम योगदान नहीं रहा है। आदिवासियों ने अपने परंपरागत धनुष बाणों से तत्कालीन
ब्रिटिश सरकार पर आक्रमण कर उन्हें कई बार मैदान छोडऩे के लिए भी बाध्य कर दिया था। आदिवासी समुदाय के अल्लूरी सीताराम राजू की जयंती पर आदिवासी समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाली सामाजिक संस्था अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम के मीडिया प्रभारी संजीव आहूजा ने उन्हें याद करते हुए कहा कि उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य की दमनकारी नीतियों के खिलाफ संघर्ष शुरु किया था और इस संघर्ष में उनके साथ कई आदिवासी समुदायों का भी सहयोग रहा था। जंगल के टीलों से ही स्वाधीनता की योजना का सीताराम राजू ने बनाई थी और उनका यह संघर्ष देश आजाद होने तक निरंतर चलता रहा। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन स्वतंत्रता के संघर्ष में लगा दिया। उनका जन्म 4 जुलाई 1897 को विशाखापट्टणम जिले के पांड्रिक गांव में हुआ था। उन्होंने युवावस्था में ही आदिवासी समाज को अंग्रेजों के खिलाफ संगठित करना शुरु कर दिया था। उन्हें परिजनों ने भी क्रांतिकारी संस्कार दिए थे कि अंग्रेजों ने सभी को गुलाम बनाकर रखा हुआ है और वे देश को लूट रहे हैं। संजीव का कहना है कि इस महान क्रांतिकारी ने महर्षि की तरह 2 वर्ष तक सीतामाई नामक पह़ाडी की
गुफा में अध्यात्म साधना व योग क्रियाओं से चिंतन तथा ताप विकसित किया था।
उनके साथियों में बीरैयादौरा प्रमुख थे। उन्होंने भी अपना अलग संगठन बनाया हुआ था। बीरैयादौरा ने भी अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा था और अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर उन्हें जेल में डाल दिया था, लेकिन वह जेल की दीवार कूदकर जंगलों में भाग गए थे। इन दोनों ने आपसी सहयोग से ब्रिटिश सरकार के खिलाफ अपनी लड़ाई जारी रखी। हालांकि ब्रिटिश सरकार ने बीरैयादौरा को फांसी पर लटकाने की योजना बना ली थी। लेकिन सीताराम राजू के नाम से ब्रिटिश पुलिस भी थर-थर कांपती थी। उन्होंने ब्रिटिश सरकार को चेतावनी दे दी थी कि वह बीरैयादौरा को रिहा करवाकर ले जाएंगे और उन्होंने अपने चेतावनी को सही साबित भी कर दिया था। जब बीरैयादौरा को हथकड़ी-बेड़ी लगाकर अदालत ले जाया जा रहा था तो सीताराम राजू ने पुलिस टुकड़ी पर धावा बोल दिया था और बीरैयादौरा को छुडाक़र सीताराम राजू ले गया था।
राजू और बीरैयादौरा आखिर तक ब्रिटिश साम्राज्य की समस्या ही बने रहे। अंग्रेजी सरकार ने उन्हें पकड़वाने के लिए 10 हजार रुपए का नगद ईनाम भी घोषित कर दिया था। उनकी वीरता के किस्से आज भी आदिवासी समाज से साझा करते आ रहे हैं। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर काफी यातनाएं दी और अंत में एक वृक्ष से बांधकर उन्हें भून दिया था। संजीव आहूजा का कहना है कि आज भी अल्लूरी सीताराम राजू आदिवासियों की आत्मा में देवता के स्वरुप जीवित हैं। समुदाय ने उन्हें लोकगीतों में लोक नायक के रुप में प्रस्तुत किया है। ऐसे ही क्रांतिकारियों की कुर्बानियों से देश आजाद हो सका था।
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