गुडग़ांवI पंडित लख्मीचंद को हरियाणवी संस्कृति को समृद्ध व गौरवशाली बनाने का श्रेय जाता है पंडित लख्मीचंद का हरियाणवी रागनियो व सांग में उल्लेखनीय योगदान के कारण उन्हें सूर्य कवि व हरियाणा का कालिदास भी कहा जाता है। रागिनी एक कोरवी लोकगीत विद्या है जो आज स्वतंत्र लोकगीत विद्या के रूप में स्थापित हो चुकी है और हरियाणा में मनोरंजन के लिए गाए जाने वाले गीतों में रागनी प्रमुख है। आज भी दादा लख्मीचंद की परंपरा को उनके सुपुत्र तुलाराम व विष्णु हरियाणा व आस-पास के राज्यों में इस कला का प्रचार करने में जुटे हैं। उक्त बात प्रदेश के रंगकर्मियों ने पंडित लख्मीचंद की जयंती पर उन्हें याद करते हुए कही।
उन्होंने कहा कि उनका जन्म 15 जुलाई 1903 को सोनीपत जिले के गांव जाटी में एक साधारण किसान परिवरा में हुआ था। पढ़ाई-लिखाई की जगह उन्हें घर के काम व पशु चराने के लिए भेज दिया जाता था और वह पशु चराते चराते ही भजन गायन करने लग जाते थे। उनका गायन लोगों को बहुत ही पसंद आने लग गया और वह कविताओं से लोगों का मनोरंजन करने लग गए थे। अपनी रागनियों व किस्सों की रचना कर लख्मीचंद प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ कवि भी कहलाए। वक्ताओं ने कहा कि लख्मीचंद ने हरियाणा संस्कृति को एक अलग ही दिशा दी। लख्मीचंद रागनी के साथ-साथ सांग भी किया करते थे।
जिसके लिए उन्होंने अपनी एक मंडली भी बना ली थी। गुरु मान सिंह ने उन्हें गायन कला में और भी अधिक निपुण कर दिया था। उन्होंने नल दम्यंती, भगत पूरणमल सेठ ताराचंद, मीराबाई, सत्यवान सावित्री, नौटंकी, राजा भोज, राजा हरिश्चंद्र, शाही लकड़हारा, चाप सिंह, पद्मावती और हीर रांझा जैसी अनेक किस्सो व रागनियो की रचना की है। उनके कंठ में मां सरस्वती का वास था। वह तुरंत कविता की रचना कर देते थे। उनकी रचनाएं आज वेद शास्त्रों में लोक समाज का अध्ययन भी कराती हैं।
उनके सांग व रागनियों के बिना हरियाणवी संस्कृति अधूरी है। प्रदेश में कहीं भी रागनी का प्रोग्राम होता है तो पंडित लख्मीचंद के स्मरण के बिना शुरु नहीं होता। उनका निधन 17 अक्तूवर 1945 को 42 वर्ष की आयु में हो गया था। प्रदेश के कई विश्वविद्यालयों में उनके गायन पर शोध कार्य भी चल रहे हैं। वक्ताओं ने लोक कलाकारों से कहा कि उनके आदर्शों पर चलकर ही प्रदेश में लोक कला को जीवित रखा जा सकता है, यही उनके लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
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