गुडग़ांवI धर्म का मूल स्वरूप दया और करुणा है। धर्म मानव के स्वाभाविक गुणों को प्रकट करता है। जिस प्रकार बर्फ का मौलिक गुण
शीतलता है। ठीक उसी तरह मानव आत्मा में शांति, प्रेम, आनन्द और खुशी जैसे गुण अंतर्निहित हैं। धार्मिक संस्था ब्रह्माकुमारीज के बीके मदनमोहन ने कहा कि वास्तव में धर्म केवल दो ही हैं। एक स्व अर्थात आत्मा का और दूसरा प्रकृति का। धर्म का अर्थ ही है धारणा। अंत: चेतना की जागृति का नाम ही धर्म है। वास्तव में मानव आत्मा की मूल प्रवृत्ति ही उसका धर्म है। धर्म मानव को सभ्यता के उच्च शिखर पर ले जाता है। धर्म विहीन मनुष्य पशु समान है। आज आत्मिक धर्म को भूल मानव प्रकृति के धर्म को ही असली समझ बैठा है। जिस कारण धर्म के नाम से अनेक विकृतियां पैदा हो गई हैं। इन विकृतियों के कारण ही धर्म ग्लानि होती है। उनका कहना है कि आज जिन्हें हम अलग-अलग
धर्म समझ बैठे वो वास्तव में एक ही धर्म की अभिव्यक्तियां हैं। लेकिन वर्तमान समय धर्म के वास्तविक स्वरूप के उलट मानव उन अभिव्यक्तियों के भ्रम में फंस गया है।
इन सब बातों का कारण मानव आत्मा पर प्रकृति का गहरा प्रभाव है। आंतरिक चेतना की जागृति न होने के कारण मानव देह के धर्मों में फंस गया। आज धर्म की पहचान बाहरी वस्त्रों व वेशभूषा से होती है। जिस कारण अनेक मतभेद उत्पन्न होते हैं। इसलिए धर्म के नाम पर एक उन्माद पैदा हो गया है। धर्म वास्तव में मानवता का मूल स्वरूप है। धर्म केवल उच्चारण नहीं बल्कि आचरण का विषय है। धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझने के लिए बाहरी नहीं अपितु आंतरिक परिवर्तन की आवश्यकता है। जिस दिन मानवता धर्म के असली अर्थ स्वरूप में टिक जायेगी, उस दिन हिंसा और वैर भाव समाप्त हो जायेगा। धर्म के असली रहस्य को समझने के लिए हमें अपनी पुरातन संस्कृति को जानना जरूरी है। एक समय ऐसा भी था, जब पूरे विश्व में केवल एक ही धर्म था। यही भारत भूमि देवभूमि कहलाती थी।
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