गुडग़ांवI जनसंघ के संस्थापक डा. श्यामप्रसाद मुखर्जी जहां बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे, वहीं वे शिक्षाविद् के रुप में भी विख्यात रहे हैं। उन्होंने विदेश से वकालत में शिक्षा ग्रहण की थी और इंग्लैंड से बेरिस्टर बनकर स्वदेशी लौटे थे। 33 वर्ष की अल्पायु में वह कलकता
विश्वविद्यालय के कुलपति भी बने। उक्त बात भाजपा जिला किसान मोर्चा के कोषाध्यक्ष सीताराम सिंघल ने उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें याद करते हुए कही। उन्होंने कहा कि उनका जन्म 6 जुलाई 1901 को कलकत्ता के प्रतिष्ठित परिवार सर आशुतोष मुखर्जी के घर हुआ था। एक विचारक तथा प्रखर शिक्षाविद् के रुप में उनकी उपलब्धि तथा ख्याति निरंतर आगे बढ़ती गई। उन्होंने देशवासियों को अंग्रेजी सरकार की गुलामी से मुक्ति दिलाने व उन्हें जागरुक करने के लिए उन्होंने राजनीति में प्रवेश किया था। सही अर्थों में डा. मुखर्जी मानवता के उपासक व सिद्धांतवादी थे। उन्होंने गैर कांग्रेसी हिंदूओं की मदद से कृषक प्रजा पार्टी से मिलकर प्रगतिशील गठबंधन का निर्माण किया था।
वह सावरकर के राष्ट्रवाद के प्रति आकर्षित हुए और हिन्दू महासभा में शािमल हो गए। उस समय बंगाल का वातावरण काफी दूषित हो रहा था। अंगे्र्रज सरकार सांपद्रायिक लोगों को प्रोत्साहित कर रही थी। भाजपा नेता ने कहा कि ऐसी विषम परिस्थितियों में उन्होंने यह सुनिश्चित करने का बीड़ा उठाया कि बंगाल के हिन्दुओं की उपेक्षा न हो। वह धर्म के आधार पर विभाजन के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने जनसंघ की स्थापना भी की थी। गांधीजी व सरदार पटेल के अनुरोध पर वह देश के पहले मंत्रीमंडल में उद्योगमंत्री के रुप में शामिल हुए थे, लेकिन उनके राष्ट्रवादी चिंतन के चलते अन्य नेताओं से मतभेद बराबर बने रहे और उन्होंने मंत्रीमंडल से त्यागपत्र दे दिया था और अक्तूबर 1951 में भारतीय जनसंघ का गठन भी किया था।
डा. मुखर्जी कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। उन्होंने तत्कालीन नेहरु सरकार को भी चुनौती दे डाली थी। 1953 में बिना परमिट लिए जम्मू कश्मीर की उन्होंने यात्रा भी की थी, लेकिन उन्हें गिरफ्तार कर नजरबंद कर लिया गया था। 23 जून 1953 को रहस्यमयी परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई थी। हिंदुत्व की भावना को वे सर्वोपरि मानते थे। उन्होंने कहा कि डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के आदर्शों पर चलकर ही देश व समाज का भला संभव है। यही उनके लिए सबसे सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
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