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आधुनिकता के दौर में ईश्वर के दर्शनों की परंपराओं में आया है बदलाव

गुडग़ांव, जब भी श्रद्धालु किसी मंदिर में विभिन्न
देवी-देवताओं के दर्शन करे के लिए जाते हैं तो वे दर्शन करने के बाद बाहर
आकर मंदिर की सीढिय़ों पर थोड़ी देर के लिए अवश्य बैठते हैं। यह परंपरा
प्राचीन काल से ही चली आ रही है। इस परंपरा को भी धार्मिक दृष्टि से देखा
जाता है। हालांकि आधुनिकता के इस दौर व बदलते परिवेश में मंदिर की
सीढिय़ों पर बैठने की परंपरा में भी बदलाव आ गया है। क्योंकि लोग सीढिय़ों
पर बैठकर अपने घर, परिवार तथा राजनीति की चर्चा करने लगते हैं। यह कहना
है कथावाचक डा. मनोज शर्मा का। उनका कहना है कि यह परंपरा हमारे
बुजुर्गों से एक विशेष उद्देश्य के लिए बनाई थी। मंदिर की सीढिय़ों पर
बैठकर बड़े-बुजुर्ग ईश्वर से यही प्रार्थना करते थे कि बिना तकलीफ के
उनकी मृत्यु हो और वे कभी भी बीमार होकर बिस्तर पर पड़े-पड़े कष्ट उठाकर
मृत्यु को प्राप्त न हो। यानि कि चलते-फिरते ही उनके प्राण निकल जाएं।
साथ-साथ यह बुजुर्ग यह भी ईश्वर से प्रार्थना करते थे कि उन्हें कभी किसी
के सहारे न रहना पड़े। यानि कि अधरंग जैसी बीमारी से गृसित न हों, ताकि
उन्हें किसी और का सहारा लेना पड़े। क्योंकि इससे इस प्रकार का रोगी
दूसरों पर आश्रित हो जाता है। इसके अतिरिक्त ये वृद्धजन ईश्वर से यही
प्रार्थना करते थे कि जब भी उनकी मृत्यु हो ईश्वर के सम्मुख ही हो। ईश्वर
के दर्शन करते हुए ही उनके प्राण निकलें। कथावाचक का कहना है कि आजकल
बड़े-बुजुर्गों ने जो परंपराएं बनाई थी। वे धीरे-धीरे समाप्त होने की
कगार पर हैं। क्योंकि आज के युवक-युवतियों का ध्यान पुरानी परंपराओं पर
नहीं है। उनका कहना है कि जब भी मंदिर में देवी-देवताओं के दर्शन के लिए
जाएं तो खुली आंखों से ही उनके दर्शन करने चाहिए। कुछ श्रद्धालु वहां
आंखें बंद कर खड़े रहते हैं। जब आंखें ही बंद रहेंगी तो ईश्वर के दर्शन
मंदिर में कैसे हो पाएंगे। उनका कहना है कि मंदिरों में दर्शन करने के
बाद मंदिर की सीढिय़ों पर अपनी आंखें अवश्य बंद कर बैठें। क्योंकि मंदिर
मे जो उन्होंने ईश्वर के दर्शन किए हैं, उनके रुप का बंद आंखों से ध्यान
कर सकें। उनका कहना है कि यह परंपरा बुजुर्गों के अलावा हमारे धार्मिक
शास्त्रों में भी मिलती है।

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